उत्तराखंड में सशक्त भू-कानून की मांग तेजी से बढ़ रही है, जिसमें हिमाचल प्रदेश जैसे कड़े नियमों को लागू करने की अपील की जा रही है। जानिए कब और क्यों उठी उत्तराखंड में भू-कानून की मांग और इसके प्रमुख बदलाव।
मुख्य बिंदु
Toggleउत्तराखंड में अचानक से भू-कानून की मांग इतनी तेज क्यों हो गई? क्या ऐसा कुछ हुआ जिसने राज्य के नागरिकों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया? इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत का इतिहास और मौजूदा हालातों को समझना जरूरी है, ताकि यह पता चले कि आखिर क्यों एक सशक्त भू-कानून की मांग ने प्रदेश में जोर पकड़ लिया है।
उत्तराखंड भू-कानून की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तराखंड के गठन के बाद से ही राज्य में भूमि से जुड़े कई कानून बने और उनमें समय-समय पर बदलाव भी किए गए। सबसे पहली बड़ी पहल एनडी तिवारी सरकार के दौरान हुई, जब बाहरी प्रदेशों के व्यक्तियों के लिए कृषि भूमि खरीदने की सीमा 500 वर्ग मीटर तय की गई। हालांकि, राज्य में इस कानून का विरोध भी शुरू हो गया था, क्योंकि लोग इसे अपनी जमीन और संसाधनों पर बाहरी लोगों का कब्जा मानते थे।
इसके बाद, 2007 में बीसी खंडूरी की सरकार ने इस कानून को और सख्त बनाया और भूमि खरीद की सीमा को 500 वर्ग मीटर से घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया। यह बदलाव भी स्थानीय नागरिकों की ओर से सराहा गया, लेकिन इससे उनके गुस्से को पूरी तरह शांत नहीं किया जा सका।
2018 में उत्तराखंड भू-कानून में क्या बदलाव हुए?
सबसे बड़ा मोड़ तब आया, जब 2018 में त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने भू-कानून में व्यापक संशोधन किए। इस संशोधन के तहत उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ी क्षेत्रों में भी असीमित भूमि खरीदने की अनुमति दी गई। इसने राज्य के स्थानीय नागरिकों के बीच गुस्से की आग भड़का दी। लोगों का मानना है कि इस तरह के कानून से बाहरी लोग राज्य की सबसे मूल्यवान कृषि योग्य भूमि खरीदकर स्थानीय निवासियों को बेघर और भूमिहीन बना रहे हैं।
उत्तराखंड भू-कानून की हिमाचल प्रदेश से तुलना
इस मुद्दे पर एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में पहले से ही एक कड़ा भू-कानून लागू है। हिमाचल प्रदेश में टेनेंसी एक्ट की धारा 118 के तहत बाहरी व्यक्ति बिना राज्य सरकार की अनुमति के जमीन नहीं खरीद सकता। इस एक्ट की वजह से हिमाचल अपनी जमीन और संसाधनों को सुरक्षित रखने में सक्षम है। यही कारण है कि अब उत्तराखंड के लोग भी उसी तरह के सशक्त कानून की मांग कर रहे हैं, ताकि उनकी जमीनें बाहरी लोगों के हाथों में न जाएं।
उत्तराखंड की लगभग 63% भूमि वन क्षेत्रों के तहत आती है, जबकि केवल 14% भूमि ही कृषि योग्य है। यह सीमित कृषि योग्य भूमि राज्य के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन बाहरी लोगों द्वारा इन जमीनों की बड़े पैमाने पर खरीद से राज्य के स्थानीय निवासियों पर असर पड़ रहा है। उनकी पहचान, संस्कृति और परंपराएं खतरे में हैं।
इतिहासकार शेखर पाठक के अनुसार, उत्तराखंड में जमीन से संबंधित कोई भी बड़ा भूमि बंदोबस्त 1960 के दशक के बाद से नहीं हुआ है। इतने वर्षों में राज्य की कितनी भूमि कृषि से हटाकर गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए उपयोग की गई है, इसका कोई सटीक डेटा उपलब्ध नहीं है। ऐसे में राज्य के नागरिकों का गुस्सा जायज़ है।
उत्तराखंड भू-कानून: वर्तमान आंदोलन और मांग
वर्तमान में, उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में भू-कानून को लेकर बड़े स्तर पर आंदोलन हो रहे हैं। हाल ही में देहरादून में 24 दिसंबर को एक विशाल रैली का आयोजन किया गया, जिसमें सशक्त भू-कानून और मूल निवास प्रमाण पत्र की मांग उठाई गई। राज्य के नागरिक चाहते हैं कि उनकी भूमि बाहरी लोगों के हाथों में न जाए और प्रदेश की संपत्ति और संसाधनों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
उत्तराखंड की सीमित कृषि योग्य भूमि के संदर्भ में, एक सशक्त भू-कानून आवश्यक है, ताकि यहां की संस्कृति, परंपराएं, और मूल निवासियों की अस्मिता सुरक्षित रह सके।
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