उत्तराखंड में भूमि कानूनों को लेकर संघर्ष समिति ने सरकार से पारदर्शिता की मांग की है। समिति चाहती है कि नए भू-कानून को जनता के बीच साझा किया जाए और भूमि बंदोबस्त की प्रक्रिया को तेजी से पूरा किया जाए।
मुख्य बिंदु
Toggleमूल निवास-भू कानून संघर्ष समिति ने हाल ही में देहरादून में एक प्रेस वार्ता आयोजित की, जिसमें उन्होंने सरकार से मांग की कि प्रस्तावित भू-कानून को सार्वजनिक किया जाए। समिति ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी महत्वपूर्ण कानून को जनता के बीच पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए, ताकि लोगों को उसकी जानकारी हो और वो अपनी राय व्यक्त कर सकें। 2018 में भूमि कानून में हुए संशोधन के बाद, राज्य के कई क्षेत्रों में जमीन से संबंधित मुद्दे उभर कर सामने आए हैं। इसलिए, समिति चाहती है कि नए कानून को विधानसभा में पारित करने से पहले सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुत किया जाए।
सत्यापन की प्रक्रिया और भूमि खरीद के नियम
समिति का सुझाव है कि उत्तराखंड में 30 साल से रहने वाले निवासियों को सत्यापन के बाद 200 वर्ग मीटर तक जमीन खरीदने का अधिकार मिलना चाहिए। 2018 के बाद से राज्य में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, जिसके परिणामस्वरूप देहरादून जैसे क्षेत्रों में 85 गांव अब नगरों में शामिल हो चुके हैं। अगर हम इस नगरीकरण के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो राज्य के कुल 385 गांव अब नगर क्षेत्रों का हिस्सा बन चुके हैं। यह स्पष्ट है कि शहरीकरण की इस तेज़ी से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को काफी प्रभावित किया है।
भूमि बंदोबस्त और कानून का समानता का सिद्धांत
समिति का मानना है कि नगरी और ग्रामीण क्षेत्रों में एक समान भूमि कानून लागू होना चाहिए। इससे भूमि विवादों और जमीन की खुर्द-बुर्द की घटनाओं को रोका जा सकेगा। यदि हम आंकड़ों पर गौर करें, तो भूमि बंदोबस्त में देरी से कई परियोजनाओं और योजनाओं पर नकारात्मक असर पड़ा है। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन के अनुसार, उत्तराखंड में लगभग 40% विकास परियोजनाएं भूमि विवादों के कारण लंबित पड़ी हैं। यह दर्शाता है कि उचित भूमि बंदोबस्त की कितनी आवश्यकता है।
राजनीतिक रैलियों और भविष्य की योजनाएं
समिति ने घोषणा की है कि भू-कानून और 1950 के मूल निवास के मुद्दे पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने बताया कि आने वाले समय में केदारनाथ में एक विशाल रैली आयोजित की जाएगी, जिससे इस मुद्दे पर अधिक जागरूकता फैलाई जा सके। इसके साथ ही, हरिद्वार, पिथौरागढ़, और पौड़ी में भी बड़े स्तर पर रैलियों का आयोजन किया जाएगा। राजनीतिक दृष्टिकोण से, उत्तराखंड जैसे राज्य में भूमि से जुड़े मुद्दों पर ये रैलियां सरकार पर दबाव डालने का एक प्रयास हो सकती हैं।
जमीनों की खुर्द-बुर्द पर समिति की चिंता
समिति ने सरकार पर यह भी आरोप लगाया कि उत्तराखंड की विभिन्न सरकारों ने इन्वेस्टर समिट और अन्य योजनाओं के नाम पर जमीनों की खुर्द-बुर्द की है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में राज्य में लगभग 1500 एकड़ भूमि औद्योगिक और वाणिज्यिक परियोजनाओं के नाम पर बेची गई है, जिसमें से कुछ हिस्सों का इस्तेमाल निजी लाभ के लिए किया गया। यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है, जब हम यह देखते हैं कि अन्य हिमालयी राज्यों में ऐसी घटनाएं कम हुई हैं, जबकि उत्तराखंड में यह मामला बढ़ता जा रहा है।
मेरे विचार से, सरकार को भूमि कानूनों में पारदर्शिता लाने और भूमि बंदोबस्त की प्रक्रिया को तेज करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही, भूमि से जुड़े मामलों में सभी हितधारकों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि निर्णय सार्वजनिक हित में लिया जा सके।
समिति द्वारा व्यक्त किए गए विचार और आरोप वास्तविक हैं, और इसके समाधान के लिए सरकार को त्वरित और स्पष्ट कदम उठाने होंगे।
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